यूनिवर्सिटी से ज्यादा खर्चीली स्कूली पढ़ाई
भारत में स्कूली शिक्षा यूनिवर्सिटी से ज्यादा महंगी है। यह खुलासा यूनेस्को की रिपोर्ट में हुआ है। भारतीय परिवार अपने बच्चों के प्राइमरी स्कूल एजूकेशन पर ज्यादा खर्च करते हैं, जिससे गरीब बच्चों के लिए बुनियादी शिक्षा का मौलिक अधिकार एक दिवा स्वप्न बना हुआ है। इसके विपरीत यूनिवर्सिटी एजूकेशन, जो विशिष्ट रूप से स्टूडेंट्स का भविष्य संवारने में मददगार होता है, प्राइमरी शिक्षा पर होने वाले खर्च के मुकाबले आधी लागत वाला बना हुआ है।
28 फीसदी कमाई बच्चों की पढ़ाई पर खर्च :
लोग अपनी कमाई का एक चौथाई से ज्यादा यानी 28 फीसदी अपने बच्चों की प्राइमरी से लेकर सेकंडरी एजूकेशन पर खर्च करते हैं। इतनी ज्यादा फीस गरीब परिवारों के बच्चों के लिए सचमुच बहुत बड़ी बाधा है। यह बात यूनेस्को इंस्टीट्यूट फॉर स्टैटिस्टिक्स द्वारा जारी ग्लोबल एजूकेशन डाइजेस्ट 2007 में कही गई है। हालांकि इसी के साथ लोग यूनि. एजूकेशन पर इस खर्चे का आधा 14 फीसदी लगाते हैं जो स्टूडेंट्स के लिए खास तौर पर फायदेमंद है।
दो सौ देशों पर हुई स्टडी : रिपोर्ट में दो सौ देशों के ताजा एजूकेशन आंकड़ों को अध्ययन का आधार बनाया गया है। इसमें शिक्षा के वित्त पोषण और शिक्षा पर खर्च के तरीकों की तुलना के लिए एक सीरीज में संकेतक मुहैया कराए गए हैं। रिपोर्ट पब्लिक और प्राइवेट खर्चे के बीच संतुलन की पड़ताल की जरूरत पर जोर देती है। यह सिस्टम, खासकर प्राइमरी स्तर की शिक्षा, जो पूरी तरह से प्राइवेट क्षेत्र के सहयोग पर निर्भर है, गरीब परिवारों के स्टूडेंट्स को दरकिनार करती है। यह स्थिति काफी जोखिमपूर्ण और चेतावनी भरी है।
एजुकेशन पर सरकारी पैसा सिर्फ इंडिया में :
रिपोर्ट के मुताबिक भारत जैसे कुछ ही देश हैं जहां प्राइमरी से लेकर सेकंडरी एजूकेशन तक पैसा सीधे तौर पर सरकार देती है। यहां प्राइवेट स्कूलों को भी सरकार के बजट से पैसा मिलता है। भारत में बने एक सिस्टम का ही नतीजा है कि सरकार प्राइवेट स्कूलों की जरूरतें पूरी करने के लिए उनकी मदद करती है। जहां तक देश में शिक्षा के संसाधनों के वितरण का सवाल है, रिपोर्ट कहती है कि स्कूल जाने वालों के बीच फंड्स का वितरण बहुत ही असमानतापूर्ण है।
प्राइमरी स्कूल के बच्चे बेहद दबाव में हैं
लंदन : इंग्लैंड में प्राइमरी स्कूल के बच्चे और उनके अभिभावक आजकल गहरी चिंता के दौर से गुजर रहे हैं। इसकी वजह है माडर्न लाइफ। एक अध्ययन में यह खुलासा हुआ है। शोधकर्ताओं ने बच्चों, अभिभावकों, अध्यापकों और दूसरे लोगों से विचार- विमर्श करके ऐसे नतीजे निकाले हैं। प्राइमरी रिव्यू के डायरेक्टर प्रो. रॉबिन अलेक्जांडर का कहना है कि युवा बच्चे व्यापक दबाव से गुजर रहे हैं।
उन पर सरकार के टेस्ट्स, स्कूल के बाहर के जीवन, सड़क सुरक्षा, शारीरिक खतरे और इसी उम्र में पैदा हो आए सेंस का बेहद दबाव है। उनके सामने उपभोक्तावाद, वैयक्तिकवाद, और भौतिकतावाद जैसे मूल्यों का भी दबाव है। बातचीत में इन सारे दबावों का जिक्र करते वक्त वे यह कहना नहीं भूलते कि हर पीढ़ी के साथ अपने तरह का दबाव और चिंताएं होती हैं।
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